________________ (36) क्या स्थान है? उस का भी हम अवलोकन करेंगे। विच्छिन्न धर्म के प्रवर्तन हेतु गौतम बुद्ध तथा वर्द्धमान महावीर ने इस डोर को साधा, ऐसा इनके अनुयायियों का मन्तव्य है। क्योंकि अर्हत् तथा बुद्ध का जन्म समय-समय पर धर्मप्रवर्तन हेतु होता आया है। इस प्रकार इसके मर्म को उद्घाटित करते हुए सारत्थदीपनी टीका में उल्लेख है कि-जो समस्त परिज्ञातस्कंध हैं, प्रहीणक्लेश भावितमार्ग, स्वस्तिकत निरोधवान्, क्षीणास्रव हैं। वे अनुत्तर योगक्षेम को वहन करते विचरते हैं, वे परिसुद्धप्रयोगवान्, कल्याणशुद्धाशया, श्रद्धा, शील, श्रुतादिगुण सम्पन्न हैं वे अर्हत् हैं। इसी प्रकार जिसका संसार में जन्म-मरण रूप गमन भी समाप्त हो चुका वह अर्हत् हैं।' अरहंत परमात्मा के सदृश इस लोक में अन्य कोई नहीं है। अतः वे प्रशंसा योग्य हैं। यहाँ अर्हत् की असाधारणता व्यक्त की गई है। उनकी आध्यात्मिक कक्षा की पहुँच साधारण लोगों के बूते की बात नहीं। क्योंकि जो वीतराग हैं, वे वन को भी रमणीय बनाने का सामर्थ्य रखते हैं, साधना के माध्यम से यहाँ अर्हत का स्वरूप, लक्षण, परिणाम उस काल के परिवेश आदि का विवेचन किया गया है। जो कि जैन सम्मत अर्हत् से अत्यधिक साम्य रखता है। ___ बौद्ध दर्शन के सुत्त निपात्त, संयुक्त निकाय, खुद्दक निकाय महापरिनिब्बान सुत्त, मज्झिम निकाय, विशुद्धिमार्ग, बुद्धचर्या, अभिधर्मकोश, आदि धर्मग्रन्थों में अर्हत्, विषयक प्ररूपणा पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। परन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि जिसकी वासनाएँ क्षीण हो गई है, क्षीणास्रव है, वीतराग, वीतद्वेष, वीततृषी है, निरासक्त, निराकुत है वही इस अर्हत्त्व का अधिकारी हो सकता है। वेदों में अर्हन्, अर्हन्त आदि संज्ञाएँ अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं को दी गई है, वह किसी व्यक्तित्व परक न होकर व्यक्तिनिष्ठ न होकर आध्यात्मिक कक्षा के उच्चत्तम स्तर को प्राप्त देवताओं के लिए प्रयुक्त है, जो कि पूजनीय अर्थ परक है। किन्तु इस श्रमण परम्परा में यह अभिधान अर्थपरक होने के साथ आध्यात्मिक उच्चत्तम अवस्था को प्राप्त, व्यक्तित्व परक हो गया है। उपर्युक्त उद्धरणों से अर्हत् परमेष्ठी गत विशेषण व विवेचन से हमें जैन 1. विनयट्ठकथी-सारत्यदीपिनी टीका-१-१७० 2. वही 1-171 3. वही 171