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( ३५ ) बताए हैं उनसे तथा "अत एत सौ पुंसि मागध्याम्' (हे० प्रा० ४, २८७) इस सूत्र की हत्या में जो “यदपि "पोराणमद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं" इत्यादिना पार्षस्य अर्धमागधभाषानियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानात्, न वक्ष्यमाणलक्षणस्य" यह कहकर उसी के अनन्तर जो दशवैकालिक सूत्र से उद्धृत “कयरे आगच्छइ, से तारिसे जिइंदिए" यह उदाहरण दिया है उससे उक्त बात निर्विवाद सिद्ध होती है।
डॉ. जेकोबी ने प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री कहकर 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया है। डॉ. पिशल ने अपने सुप्रसिद्ध प्राकृत-व्याकरण में डॉ. जेकोबी की इस बात का सप्रमाण खंडन किया है और यह सिद्ध किया है कि आर्ष और अर्धमागधी इन दोनों में परस्पर भेद नहीं है, एवं प्राचीन जैन सूत्रों की-गद्य और पद्य दानों की भाषा परम्परागत मत के अनुसार अर्धमागधी है। परवर्ती काल के जैन प्राकृत ग्रन्थों की भाषा अल्पांश में अर्धमागधी की और अधिकांश में महाराष्ट्री की विशेषताओं से युक्त होने के कारण 'जैन महाराष्ट्री' कही जा सकती है; परन्तु प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा को, जो शौरसेनी आदि भाषाओं की अपेक्षा महाराष्ट्री से अधिक साम्य रखती हुई भी, अपनी उन अनेक खासियतों से परिपूर्ण है जो महाराष्ट्र आदि किसी प्राकृत में दृष्टिगोचर नहीं होती हैं, यह ( जैन महाराष्ट्री) नाम नहीं दिया जा सकता।
पंडित बेचरदास अपने गुजराती प्राकृत-व्यारकण की प्रास्तावना में जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा को प्राकृत (महाराष्ट्री) सिद्ध करने की विफल चेष्टा करते हुए डॉ. जेकोबी से भी दो कदम आगे बढ़ गए हैं, क्योंकि डॉ. जेकोबी जब इस भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री-साहित्य-निबद्ध महाराष्ट्री से पुरातन महाराष्ट्री बताते हैं तब पंडित बेचरदास, प्राकृत
भाषाओं के इतिहास जानने की तनिक भी परवाह न रखकर, अर्वाचीन महाष्ट्री से इस प्राचीन अर्धमागधी महाराष्ट्री से अर्धमागधी को अभिन्न सिद्ध करने जा रहे हैं ! पंडित बेचरदास ने अपने सिद्धान्त के समर्थन में जो
भिन्न है दलीलें पेश की हैं वे अधिकांश में भ्रान्त संस्कारों से उत्पन्न होने के कारण कुछ महत्त्व न रखती हुई भी कुतूहल-जनक अवश्य हैं। उन दलीलों का सारांश यह है-(१) अर्धमागधी में महाराष्ट्री से मात्र दो-चार रूपों की ही विशेषता; (२) आचार्य हेमचन्द्र का इस भाषा के लिए स्वतन्त्र व्याकरण या शौरसेनी आदि की तरह अलग-अलग सूत्र न बनाकर प्राकृत ( महाराष्ट्री ) या आर्ष प्राकृत में ही इसको अन्तर्गत करना; (३) इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताओं का अभाव; (४) निशीथचूर्णिकार के अर्धमागधी के दोनों में एक भी लक्षण की इसमें असंगति; (५) प्राचीन जैन ग्रन्थों में इस भाषा का 'प्राकृत' शब्द से निर्देश; (६) नाट्य-शान में और प्राकृत-व्याकरणों में निदिष्ट अर्धमागधी के साथ प्रस्तुत अर्धमागधी की असमानता।
१. मागधी भाषा में प्रकारान्त पुंलिंग शब्द के प्रथमा के एकवचन में 'ए' होता है। २. इसका अर्थ यह है कि प्राचीन प्राचार्यों ने "पुराना सूत्र अर्धमागधी भाषा में नियत है" इत्यादि वचन-द्वारा प्रापं भाषा को जो अर्धमागधी भाषा कही है वह प्रायः मागधी भाषा के इसी एक एकारवाले विधान को लेकर, न कि पागे कहे जानेवाले मागधी
भाषा के अन्य लक्षण के विधान को लेकर । ३. इसी वचन के आधार पर डॉ. हॉनलि का चण्ड-कृत प्राकृतलक्षण के इन्ट्रोडक्शन (पृष्ठ १८-१९) में यह लिखना कि
हेमचन्द्र के मत में 'पोराण' पार्ष प्राकृत का एक नाम है, भ्रम-पूर्ण है, क्योंकि यहां पर 'पोराण' यह सूत्र का ही विशेषण है, भाषा का नहीं। ४. पावश्यकसूत्र के पारिष्ठापनिकाप्रकण ( दे० ला० पु० फं० पत्र ६२८ ) में यह संपूर्ण गाथा इस तरह है :
"पुण्यावरसंजुत्तं वेरग्गकर सतंतमविरुद्धं । पोराणमदमागहभासानिययं हवइ सुत्तं ।।" %. Kalpa Sutra, Sacred Books of the East, VOL. XII. ६. Grammatik der Prakrit-Sprachen, 16-17. ७. जैसे प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में महाराष्ट्री भाषा के प्रथं में प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है वैसे पंडित बेचरदास
ने भी अपने प्राकृत-व्याकरण में, जो केवल हेमाचार्य के ही प्राकृत-व्याकरण के आधार पर रचा गया है, सर्वत्र साहित्यिक महाराष्ट्री के अर्थ में ही प्राकृत शब्द का व्यवहार किया है।
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