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न धरसि गुणाणुरायं,
परेसु ता निष्फलं सयलं ॥५॥ जो तुम अत्यधिक तपस्या को करते हुए शास्त्रों का अध्ययन भी करते हो फिर भी कई कष्टों का सामना करते हो तो फिर परगुणानुराग क्यों नहीं ग्रहण करते ? पराये गुणों को देखकर प्रसन्न क्यों नहीं होते। यदि परगुण प्रसन्नता नहीं है तो सब व्यर्थ है ॥५॥ सोऊण गुणुक्करिसं
अन्नस्स करेसि मच्छरं जइवि । ता नूणं संसारे,
पराहवं सहसि सव्वस्थ ॥६॥ दूसरों के गुणों के उत्कर्ष को सुनकर यदि तू इर्षा असूया करता है तो समझ तू संसार में चारों गतियों में पराभव को प्राप्त करेगा ॥६॥ गुणवंताण नराणं,
ईसा भरतिमिरपूरिश्रो भणसि । जइ कहवि दोसलेसं,
ता भमसि भवे अपारम्मि ॥७॥