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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम्
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पंच परमेष्ठि के नवपदों का एक सौ आठ बार रटन करूं', नित्य नवकारखाली गिनूं, अब मैं दर्शनाचार के नियमों को स्पष्ट करता हूं ॥७॥ देवे वन्दे निच्चं
पणसक्कथएहिं एक बार महं । दो तिनिय वा वारा,
पइजामं वा जहासत्ति ॥८॥
पांच शक्रस्तव से नित्य एक बार देव वंदन करूं या दो तीन बार या मध्याह्न चार बार यथाशक्ति अनालस्य देववंदन करूँ, शक्ति संयोग से जघन्य से एक बार उत्कृष्ट से चार बार देववंदन करूं ॥८॥
अट्ठमी-चउद्दसीसु,
सब्वाणि वि चेइबाई वंदिजा। सव्वे वि तहा मुणिणो,
सेसदिणे चेइयं इक्कं ॥१॥ पुनः प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी के दिन समग्र ग्राम-नगर के चैत्य प्रासाद में वंदन करूँ. तथा समग्र मुनिराजों का