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श्री आत्मावबोध कुलकम्
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होता कारण कि पीडा देने से वह यह सोचता है कि 'मैं कर्ज से मुक्त हो रहा हूं' ऐसा मानता है ॥ ११ ॥ दुक्खाण खाणी खलु रागदोसा,
ते हुँति चित्तम्मि चलाचलम्मि । अझप्प जोगेण चएइ चित्तं,
चलत्तमालाणि अकुञ्जरुव । ॥१२॥ निश्चय ही दुःखों की खान राग-द्वेष है, तथा रागद्वेष की उत्पत्ति चित्त के चलायमान होने पर होती है, जैसे कील के बंधा हस्ति चलायमान नहीं होता वैसे ही, उसी प्रकार अध्यात्मयोग से भी मन चलायमान नहीं होता चपलता का त्याग कर देता है ॥ १२ ॥ एसो मित्तमित्तं,
एसो सग्गो तहेव नरो श्र। एसो राया रंको,
अप्पा तुट्ठो अतुट्ठो वा ॥१३॥ आत्मा स्वयं के गुणों से संतुष्ट है तो वह स्वयं का मित्र बन सकता है स्वयं स्वर्ग बन सकता है, स्वयं राजा