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प्रमादपरिहार कुलकम्
नरत्ते पारियं खित्तं, खित्तेवि विउलं कुलं । कुलेवि उत्तमा जाई, जाईए स्वसंपया ॥३॥ रूवेवि हु अरोगत्तं, अरोगे चिरजीवियं । हियाहियं चरित्ताणं, जीविए खलु दुल्लहं ॥४॥ ___ अर्थ-मनुष्वत्व प्राप्त होने पर भी आर्यक्षेत्र मिलना दुर्लभ है, आरक्षेत्र प्राप्त होने पर भी विपुल उत्तम कुल मिलना दुर्लभ है, उत्तम कुल प्राप्त होने पर भी उत्तम जाति मिलनी दुर्लभ है, उत्तम जाति प्राप्त होने पर भी रूप संपत्ति-- पंच इन्द्रियों की पूर्णता मिलनी दुर्लभ है, रूपसंपत्ति-पंचइन्द्रियों की पूर्णता मिलने पर भी आरोग्य की प्राप्ति होनी दुर्लभ है, अरोग्य की प्राप्ति होने पर भी चीरजीवित-दीर्घ आयुष्यत्व की प्राप्ति दुर्लभ है और दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति होने पर भी संयम चारित्र से होने वाला हित या अहित को जानना दुर्लभ है ॥ ३-४॥ सद्धम्मसवणं तंमि, सवणे धारणं तहा। धारणे सद्दहाणं च, सदहाणे वि संजमे ॥५॥ ___ अर्थ- उक्त ये सब प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण करना याने धर्म को सुनना दुर्लभ है, धर्म का श्रवण होने पर भी