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प्रमादपरिहार कुलकम्
अप्पायत्तं कथं संतं, चित्तं चारित्तसंगयं । परायत्तं पुणो होइ, पमाएं
[ २०६.
तो ||२५||
अर्थ - चित्त को चारित्रसंगत बनाकर आत्मायत्त याने आत्माधीन किये हुए भी वह फिर परायत्त याने पराधीन होता है वह प्रमाद का ही फल है । इस तरह प्रमाद ने अनंतवार किया हुआ है ॥ २५ ॥
एयावत्थं तुमं जाश्रो, सव्वसुत्तो गुणायरो | संपयंपि न उज्जत्तो, पमाएणं तसो || २६ ||
अर्थ - ऐसी अवस्था वाले तू सब सूत्र का पारगामी और गुणाकार याने गुणवान होने पर भी वर्त्तमान काल में उसमें ( संयम में ) उद्युक्त नहीं होता है, वह प्रमाद का ही फल है । इस तरह प्रमादने अनंतवार किया है || २६ ॥
हा हा तुमं कहं होसि, पमायकुलमंदिरं । जीवे मुक्खे सया सुक्खे, किं न उज्जमसी लहुं ||२७||
अर्थ - हा हा इति खेदे ! प्रमाद के कुलमन्दिर (स्थान) ऐसे तेरा क्या होगा ? तू सर्वदा सुखवाले मोक्ष में क्यु शीघ्र उद्यमवाला नहीं होता १ ।। २७ ।।