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प्रमादपरिहार कुलकम्
पावं करेसि किच्छेण, धम्मं सुखेहि नो पुणो। पमाएणं अणंतेणं, कहं होसि न याणिमो ॥२८॥ ___ अर्थ-तू कष्ट सहन कर के भी पाप करता है और सुखी पणा में धर्म नहीं करता । इस से अनंता प्रमाद द्वारा हे जीव ! तेरा क्या होगा ! वह मैं नहीं जाणता अर्थात् नहीं कह सकता ।। २८ ।। जहा पयट्टति श्रणज कज्जे,
तहा विनिच्छं मणसावि नूणं । तहा खणेगं जई धम्मकज्जे,
ता दुक्खियो होइ न कोइ लोए ॥२६॥ ___ अर्थ-जिस तरह जीवों (अनार्य) पापकार्य में प्रवृत्ति करते हैं उसी तरह निश्चे मन द्वारा भी शुभ कार्य में प्रवृत्ति नहीं करते । वे एक क्षण मात्र भी जो धर्म कार्य में उस तरह प्रवृत्ति करें तो इस लोक में कोई भी जीव दुःखी न होवे ।। २६ ॥ जेणं सुलद्धेण दुहाई दूरं,
वयंति श्रायंति सुहाई नूणं ।