SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. ] प्रमादपरिहार कुलकम् पावं करेसि किच्छेण, धम्मं सुखेहि नो पुणो। पमाएणं अणंतेणं, कहं होसि न याणिमो ॥२८॥ ___ अर्थ-तू कष्ट सहन कर के भी पाप करता है और सुखी पणा में धर्म नहीं करता । इस से अनंता प्रमाद द्वारा हे जीव ! तेरा क्या होगा ! वह मैं नहीं जाणता अर्थात् नहीं कह सकता ।। २८ ।। जहा पयट्टति श्रणज कज्जे, तहा विनिच्छं मणसावि नूणं । तहा खणेगं जई धम्मकज्जे, ता दुक्खियो होइ न कोइ लोए ॥२६॥ ___ अर्थ-जिस तरह जीवों (अनार्य) पापकार्य में प्रवृत्ति करते हैं उसी तरह निश्चे मन द्वारा भी शुभ कार्य में प्रवृत्ति नहीं करते । वे एक क्षण मात्र भी जो धर्म कार्य में उस तरह प्रवृत्ति करें तो इस लोक में कोई भी जीव दुःखी न होवे ।। २६ ॥ जेणं सुलद्धेण दुहाई दूरं, वयंति श्रायंति सुहाई नूणं ।
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy