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प्रमादपरिहार कुलकम्
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रे जीव ! एयंमि गुणालयंमि,
जिणिंदधम्ममि कहं पमाश्रो ॥ ३० ॥ अर्थ--जो प्राप्त होने पर दुःखों दूर होते हैं और सुख समीप आते हैं। हे जीव ! ऐसे गुणालय याने गुण के स्थानरूप जिनेन्द्र धर्म में क्यु प्रमाद करते हो ? ॥ ३०॥ हा हा महापमायस्स,
सव्वमेयं वियंभियं। न सुणंति न पिच्छति,
कनदिट्ठीजुयावि जं अर्थ--हा हा इति खेदे ! महाप्रमाद का यह सब विजभित है कि जिससे कर्ण और नेत्र दोनों होने पर भी यह जीव सुनता नहीं, और देखता भी नहीं है ॥ ३१ ॥ सेणावई मोहनिवस्स एसो,
सुहाणुहं विग्घकरो दुरप्पा । महारिऊ सव्वजियाण एसो,
अहो हु कट्टाति महापमात्रो ॥३२॥