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वैराग्यरंग कुलकम्
समयावरसुरधेशू , खेलइ लीलाइ जस्स मगासयणे। सो सयलवंछियाई, पावइ जा सासयं ठाणं ॥ २८ ॥
अर्थ-समतारूपी श्रेष्ठ कामधेनु जिसके मनरूपी सदन में लीला पूर्वक खेल रही है वह सारे बांछित यावत् शाश्वत स्थान पर्यन्त सुखों को प्राप्त करता है ।। २८ ।। वेरग्गरंगकुलयं, एयं जो धरइ सुत्त यत्थ जुधे । संवेगभाविअप्पा, परमसुहं लहइ सो जीवो ॥२६॥
अर्थ-यह 'वैराग्यरंगकुलक' जो मनुष्य सूत्र तथा अर्थ सहित स्वयं के मन में धारण करता है वह संवेग भावी
आत्मा वाला जीव परम सुख को प्राप्त करता है ॥ २६ ।। तवगणगयणदिवायर-सूरीश्वरइंदनंदिसुगुरुणं । सीसेण रइअमेयं, कुलयं सपरोएस कए ॥ ३०॥
अर्थ-तपगच्छरूप गगन में सूर्य समान ऐसे श्री इन्द्रनन्दी सुगुरु के शिष्य ने यह कुलक [वैराग्यरंगकुलक] स्व-पर के उपदेश के लिये रचा है ।। ३० ।। ॥ इति श्री वैराग्यरंगकुलकस्य सरलार्थः समाप्तः ॥