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वैराग्यरंग कुलकम्
भी उनका अनुनय विनय करते हैं। स्त्रियों के रुष्ट होने पर भी उन्हें याचना से प्रसन्न करना चाहते है और कामान्ध होकर उनके पांवों में पडते हैं ।।२१।। हुँति हु निमित्तमित्तं इथीयो धम्मविग्धकरणंमि । परमत्थयो अ अप्पा हेऊ, विग्धं च धम्मस्स ॥२२॥ - अर्थ-धर्मकार्य में विध्न करने वाली स्त्रियां हैं यह तो निमित्त मात्र है। वास्तव में परमार्थ से तो धर्म में विध्न का हेतुभूत आत्मा ही है (आत्मा से ही विघ्न उत्पन्न होते हैं)। अप्पाणं अप्पवसे, कुणंति जे तेसि तिजयमवि वसयं। जेसिं न वसो अप्पा ते हुंति वसे तिहुणस्स ॥२३॥ ____ अर्थ-जो मनुष्य स्वयं की आत्मा को वश में करता है वह तीन लोक को भी वश में करता है। जिसे स्वयं की आत्मा वश में नहीं है वह तीन लोक के वश में है ।। २३॥ जेण जियोनिश्र अप्पा,दुग्गइ-दुःखाई तेण जिणियाई। जेणप्पा नेव जियो सो उ जियो दुग्गइ दुहेहि ॥२४॥
अर्थ-जिसने स्वयं की आत्मा को जीत लिया उसने दुर्गति के दुःख को भी जीत लिया है ऐसा समझना चाहिये ।