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प्रमादपरिहार कुलकन्
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उसकी धारणा करनी दुर्लभ है, धर्म की धारणा होने पर भी उसकी सदहणा - श्रद्धा होनी दुर्लभ है, और सद्दहणा - श्रद्धा होने पर भी संयम - चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ है ॥ ५ ॥ एवं रे जीव दुल्लभं वारसंगाण संपयं । संपयं पाविऊणेह, पमायो नेव जुज्जए
॥६॥
अर्थ - - इस तरह हे जीव ! उक्त कथन किये हुए मनुष्य जन्मादिक बारह प्रकार की सम्पदा मिलनी दुर्लभ है । वे सब मिलने पर भी प्रमाद करना वह उचित नहीं है ॥ ६ ॥ जिणिदेहि, श्रहा परिवज्जियो । अन्नाणं संसो चेव, मिच्छानाणं तहेव य ||७|| रागद्दोसो मइब्भंसो, धम्मंमि य जोगाणं दुप्पणिहाणं, श्रट्ठहा वज्जियव्व
पमा
णायरो |
॥ ८ ॥
अर्थ - जिनेश्वर -- तीर्थकर भगवन्तों ने आठ प्रकार का प्रमाद त्याग करने का कहा है। उन आठ प्रकार के प्रमादों के नाम इस तरह है
(१) अज्ञान, (२) संशय, (३) मिथ्याज्ञान, (४) राग, (५) द्व ेष, (६) मतिभ्रंश, (७) धर्म में अनादर, और (८) योग का दुष्प्रणिधान इन आठों प्रकार के प्रमादों का त्याग करना चाहिये ॥ ८ ॥