________________
श्री प्रात्माक्बोध कुलकम्
[११३ ।
M
मनुष्य तू भी ज्ञान प्रकाश में भले ही सूर्य के समान तेजस्वी है किन्तु स्त्री, धन, कुटुम्ब तथा शरीर इनके स्नेह से आच्छादित होने से तेरे ज्ञान का प्रकाश भी धूमिल पड गया है ।। १५॥ जं वाहिवाल वेसा
नराण तुह वेरिश्राण साहीणे। देहे तत्थ ममत्तं जिश्र!
कुणमाणो वि कि लहसि ? ॥१६॥ पुनः तुम्हारा यह शरीर व्याधि सर्प तथा अग्नि के समान विषयादि कषायों से ग्रसित है, शत्रुओं से आक्रान्त है अतः इस शरीर पर ममत्व करने से क्या फायदा १ ।।१६।। वरभतपाणराहाण य
सिंगारविलेवणेहिं पुट्ठो वि। निथ पहुयो विहडतो,
सुणए ण वि न सरिसो देहो ॥१७॥ उत्तम भोजन, स्वादिष्ट पेय, स्नान शृङ्गार, विलेपन आदि से पुष्ट एवं सुन्दर शरीर भी अपने स्वामी को धोखा