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जीवानुशास्ति कुलकम्
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हे जीव ! दूसरों की समृद्धि देखकर तू विषाद मत करना । विना धर्म के जीव को विविध प्रकार की सम्पत्तियां कहां से मिले ? ॥ ५ ॥ रे जीव ! किं न पिच्छसि ?,
झिज्झतं जुब्वणं धणं जीअं । तहवि हु सिग्धं न कुणसि,
अप्पहियं पवरजिणधम्मं ॥ ६ ॥ हे जीव ! तू नाशवान यौवन, धन और जीवन को क्यों देखता और सोचकर समझकर आत्महितकारी श्रेष्ठ जिनधर्म का सेवन क्यों नहीं करता १॥ ६ ॥ रे जीव ! माणवजिथ.
साहस परिहीण दीण गयलज । अच्छसि किं वीसत्थो,
न हु धम्मे श्रायरं कुणसि ॥७॥ हे जीव ! इतना अपमान सहन करता हुआ भी तू हे सत्वहीन ! हे निर्लज ! अभी तक विश्वास करके क्यों बैठा है तू धर्म में क्यों आदर नहीं करता ॥ ७॥