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जीवानुवास्ति कुलकम् [१३१ ता पायरेण गिराहसु,
संगोवय विविह पयत्तेण ॥१०॥ तुम्हारी लक्ष्मी परायों के अधीन है ऐसा मानना भूल है आत्मगुणों की लक्ष्मी ग्रहण कर तथा विविध प्रयत्नों से उसका रक्षण कर ॥१०॥ जीविध मरणेण सम,
उप्पज्जइ जुव्वणं सह जराए। रिद्धी विणास सहिश्रा,
हरिसविसायो न कायब्बो ॥११॥ __ हे जीव ! जीवन मृत्यु के साथ, यौवन जरा-बूढापे के साथ और ऋद्धि विनाश के साथ उत्पन्न होते हैं । अर्थात् जीवन के पश्चात् मृत्यु युवावस्था के साथ वृद्धावस्था तथा समृद्धि के पश्चात् विनाश होने ही वाला है। अतः हर्ष और शोक से विरक्त रहो ॥ ११ ॥
॥ इति श्री जीवानुशास्ति कुलकस्य हिन्दी सरलार्थः समाप्तः ॥