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वराग्य कुलकम्
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काऊवि पावाईं, जो त्यो संचियो तए जीव ! । सो तेसिं सयणाणं, सव्वेसिं होइ उपयोगो ॥ १३ ॥
अर्थ-- हे जीव ! पाप द्वारा जो धन तुमने एकत्र किया है, वह धन सर्व स्वजनों को उपयोगी होता है ॥ १३ ॥ जं पुण असुर्ह कम्मं, इक्कुचिय जीव ! तंसमगुहवसि । नय ते सयणा सरणं, कुगइ गच्छमाणस्स ॥ १४॥
अर्थ- हे जीव ! वह धन का संचय करने में एकत्र किये हुए पाप का दुःखरूप अनुभव तुमको अकेले को हो करना पड़ेगा । दुर्गति में जाता हुआ तुमको तेरे स्वजनों शरण देने वाले नहीं होंगे || १४ ॥
कोहेणं माणेणं, माया लोभेणं रागदोसेहिं । भवरंगो सुइरं, नडुव्व नच्चाविश्र तं सि ॥ १५ ॥
अर्थ - क्रोध, मान, माया लोभ, राग और द्वेष इन सबों ने इस भवमण्डप में दीर्घकाल पर्यन्त नट की माफिक तुमको नचाया हुआ है ।। १५ ।।
पंचेहिं इंदिएहिं, मणवयक एहिं दुटुजोगेहिं । बहुसो दारुणरुवं दुःखं पत्तं तए जीव ! ॥ १६ ॥