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वैराग्यरंग कुलकम् वेरग्गतुरंगं चडियो, पावेसि सिवपुरं झत्ति । जइ कुज भावणगई-प्रभासो तस्स पुवकयो ॥७॥ ____ अर्थ-वैराग्यरूपी श्रेष्ठ अश्वपर चढकर तू शिवपुर शीघ्र पहूँच सकता है, किन्तु तुम्हारे द्वारा भावनागति का पूर्वाभ्यास किया हुआ होगा तभी यह संभव है ॥७॥ वेरग्ग भावणाए भाविअचित्ताण होइ जं सुखं । तं नेव देवलोए देवाणं सइंदगाणंपि ॥८॥
अर्थ-वैराग्य की भावना से युक्त चित्तवाले को जो सुख होता है वह देवलोक में इन्द्रसहित देवों को भी नहीं होता ॥८॥ ता मणवंच्छिवि अरणकप्पदुमकामकुभसारिच्छं। मा मुचसु वेरग्गं खणमवि निअचित्तरंजणयं ॥१॥ ___अर्थ-अतः मनोवांछित सुख को देने वाले कल्पवृक्ष और कामकुभ के समान स्वयं चित्त का रंजन करने वाले इस वैराग्य का तू सेवन कर ॥३॥ पणिश्रपरिवजण पसु-इत्थीपंडगविवजिया वसही। सज्झायझाणजोगो, हवंति वेरग्गबीयाई ॥१०॥ ___ अर्थ-प्रवीत (स्निग्ध) भोजन त्याग, पशु स्त्री और नपुंसक वसती को छोडना, सज्झाय ध्यान के योग को करना यही वैराग्य के बीज है ।।१०।।