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वराग्यरंग कुलकम्
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तमहा रागमहायव - तविएण श्रईव सेविश्रव्वमिणं । तदुवसमकए सीयल विमलवेरग्गरंग जलं ॥३॥
अर्थ - अतः रागरूपी महान आतप धूप से जलते हुए तप्त जीवों को इस ताप के उपशम के लिये इस शीतल एवं निर्मल वैराग्य रूप जल का सेवन करना चाहिये || ३ || वेरग्गजलनिमग्गा चिठ्ठति जिया सयावि जे तेसिं । वम्महदह गाउ भयं थोवंपि न हुज्ज कइयावि ||४||
अर्थ - वैराग्यरूपी जल में निरन्तर निमज्जित रहते है उन्हें कामाग्नि का अल्पमात्र भी भय कदापि नहीं रहता ||४||
बहुविह विसयपिवासा- नइसंगमवड्डमागराग जलं । कुविकप्पनकचक्काइ- दुटुजलयर गणाइन्नं ॥ ५ ॥ पज्जलि भयवाडव - विभीसणं नइ पुमं महसि तरिजं । तारुराण सायरं ता श्ररुह वेरगारपोयं ॥ ६ ॥
अर्थ - अत्यन्त विषय पिपासारूपी नदियों के संगम से वृद्धि पाते हुए राग रूपी जलवाले, कुविकल्प रूप नक्रचक्रादि दुष्ट जलचर जीवों के समूह से व्याप्त तथा प्रज्वलित कामाग्निरूप वडवाग्नि से युक्त अति भयंकर यौवनावस्था रूप सागर को पार करने के लिये हे पुरुष १ तू वैराग्य रूप प्रवहण पर आरुढ था ।। ५-६ ॥