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________________ १६४ ] वैराग्यरंग कुलकम् वेरग्गतुरंगं चडियो, पावेसि सिवपुरं झत्ति । जइ कुज भावणगई-प्रभासो तस्स पुवकयो ॥७॥ ____ अर्थ-वैराग्यरूपी श्रेष्ठ अश्वपर चढकर तू शिवपुर शीघ्र पहूँच सकता है, किन्तु तुम्हारे द्वारा भावनागति का पूर्वाभ्यास किया हुआ होगा तभी यह संभव है ॥७॥ वेरग्ग भावणाए भाविअचित्ताण होइ जं सुखं । तं नेव देवलोए देवाणं सइंदगाणंपि ॥८॥ अर्थ-वैराग्य की भावना से युक्त चित्तवाले को जो सुख होता है वह देवलोक में इन्द्रसहित देवों को भी नहीं होता ॥८॥ ता मणवंच्छिवि अरणकप्पदुमकामकुभसारिच्छं। मा मुचसु वेरग्गं खणमवि निअचित्तरंजणयं ॥१॥ ___अर्थ-अतः मनोवांछित सुख को देने वाले कल्पवृक्ष और कामकुभ के समान स्वयं चित्त का रंजन करने वाले इस वैराग्य का तू सेवन कर ॥३॥ पणिश्रपरिवजण पसु-इत्थीपंडगविवजिया वसही। सज्झायझाणजोगो, हवंति वेरग्गबीयाई ॥१०॥ ___ अर्थ-प्रवीत (स्निग्ध) भोजन त्याग, पशु स्त्री और नपुंसक वसती को छोडना, सज्झाय ध्यान के योग को करना यही वैराग्य के बीज है ।।१०।।
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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