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________________ वराग्य कुलकम् [ १८९ काऊवि पावाईं, जो त्यो संचियो तए जीव ! । सो तेसिं सयणाणं, सव्वेसिं होइ उपयोगो ॥ १३ ॥ अर्थ-- हे जीव ! पाप द्वारा जो धन तुमने एकत्र किया है, वह धन सर्व स्वजनों को उपयोगी होता है ॥ १३ ॥ जं पुण असुर्ह कम्मं, इक्कुचिय जीव ! तंसमगुहवसि । नय ते सयणा सरणं, कुगइ गच्छमाणस्स ॥ १४॥ अर्थ- हे जीव ! वह धन का संचय करने में एकत्र किये हुए पाप का दुःखरूप अनुभव तुमको अकेले को हो करना पड़ेगा । दुर्गति में जाता हुआ तुमको तेरे स्वजनों शरण देने वाले नहीं होंगे || १४ ॥ कोहेणं माणेणं, माया लोभेणं रागदोसेहिं । भवरंगो सुइरं, नडुव्व नच्चाविश्र तं सि ॥ १५ ॥ अर्थ - क्रोध, मान, माया लोभ, राग और द्वेष इन सबों ने इस भवमण्डप में दीर्घकाल पर्यन्त नट की माफिक तुमको नचाया हुआ है ।। १५ ।। पंचेहिं इंदिएहिं, मणवयक एहिं दुटुजोगेहिं । बहुसो दारुणरुवं दुःखं पत्तं तए जीव ! ॥ १६ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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