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वैराग्य कुलकम्
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अर्थ - हे जीव ! उन्मार्ग में गमन करनेवाली ऐसी पांचों इन्द्रियों के विषयों से और मन, वचन तथा काया का दुष्ट योगों से पुनः पुनः वह दारुण दुःख प्राप्त किया है ॥ १६ ॥ ता एन्ना उणं, संसारसायरं तुमं जीव ! | सयल सुहकारणम्मि, जिणधम्मे श्रायरं कुसु ॥ १७॥
अर्थ - इसलिये हे जीव ! इस संसार सागर के स्वरूप को जानकर, समस्त सुख के कारण भूत जिनधर्म में आदर कर | १७| जाव न इंदियहाणी, जाव न जर रक्खसी परिप्फरइ । जाव न रोग वियारा, जाव न मच्चु समुल्लियइ । १८ ।
अर्थ - जब तक इन्द्रियों की हानी हुई नहीं है अर्थात नुकशान पहुंचा नहीं है, जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी स्फूरायमान हुई नहीं है, जब तक रोग का विकार हुआ नहीं है और जब तक मृत्यु- मरण समीप में आया नहीं है ॥ १८ ॥ जह गेहम्मि पलिते, कूवं खणियं न सकइ को वि। तह संपत्ते मरणे, धम्मो कह कीरए जीव ! ॥ ११ ॥
अर्थ - जैसे गृह में अग्नि (आग) लगते समय कूप खोदा नहीं जाता, वैसे मृत्यु-मरण प्राप्त होते समय हे जीव ! धर्म किस तरह हो सकता ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥ १६ ॥