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जह वा एसो देहो, वाहीहिं हिडियो दुदं लहइ । तह कम्मवाहिधत्थो, जीवो विभवे दुहं लहइ
सारसमुच्चय कुलकम्
॥२५॥
जैसे व्याधि से ग्रसित शरीर कैसा दुःखी होता है वैसे ही कर्म के पाश में जीव भी दुःखी होता है ।। २५ ।। नायंति श्रपच्छायो,
वाहियो जहा श्रपच्छनिरयस्स ।
संभवइ कम्मवुड्डी, तह पावाऽपच्छनिरयस्स
॥२६॥
जैसे अपथ्य भोजन के सेवन से रोगी को रोग बढ जाता है उसी प्रकार अपथ्य रूपी पाप में निरत कर्म रोगी जीव को पाप भी कर्म रूपी रोग में वृद्धि करते हैं ।। २६ ।।
इगो कम्मरिक, कयावयारो य नियसरी रत्थो ।
एस उविक्खिज्जतो, वाहि व्व विद्यासए पं
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