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सारसमुच्चय कुलकम्
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तो पडिवनइ किरियं,
सुवेज भणियं विवजइ अपच्छं। तुच्छन्नपच्छभोइ,
इसी सुवसंतवाहिदुहो ॥३३॥ फिर वह उत्तम वैद्य की चिकित्सा को ग्रहण करता है, अपत्थ्य छोडता है, तथा तुच्छ सुपाच्यान पथ्य ग्रहण करता है तव रोग शनैः शनैः मन्द होता जाता है वैसे ही तू भी कर्म के रोग में भी पथ्य निग्रह का पालन कर ॥ ३३ ॥ ववगयरोगायंको.
संपत्ताऽऽरोग्गसोक्खसंतुट्ठो। बहु मन्नेइ सुवेज,
अहिणं देइ वेज किरियं च ॥३४॥ आखिर वह रोगी सम्पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है तथा प्राप्त आरोग्य सुख से संतुष्ट होता है । इसके साथ ही उस वैद्य का बहुत सम्मान करता है । अपने आश्रित अन्य रोगियों को भी उस वैद्य से परामर्ष हेतु उपदेश देता है ॥३४॥