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सारसमुच्चय कुलकम्
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सवत्थ अप्पडिबद्धो.
सयगाइस मकवामोहो
॥३७॥
एवं अनेक वाद्याभ्यंतर तप में रक्त बयालीस दोषों से विशुद्ध असार भिक्षा का भोजन करता हुआ सर्वत्र अप्रतिबद्ध स्वजनादि से मोहमुक्त होकरएमाइ गुरुवइटठं,
श्रणुट्ठमाणो विसुद्धमुणिकिरियं । मुबइ निसंदिद्धं,
चिरसंचिय कम्मवादीहिं ॥३८॥ गुरुपदिष्ट साधु क्रिया को आचरित करता हुआ, निश्चय ही चिरकाल से बंधित कर्म व्याधि से मुक्त बनता है । तथा कर्ममल से निर्मल बन मोच को प्राप्त करता है ॥ ३८॥
॥ इति श्री सारसमुच्चय कुलकस्य हिन्दी सरलार्थः समाप्तः ॥