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वैराग्य कुलकम्
भवकोडिसयेहिं, परहिडिउण सुविसुद्भपुन्नजोएण। इत्तियमित्ता संपइ, सामग्गी पाविया जीव ! ॥३॥
अर्थ-हे जीव ! सैंकडो क्रोडो भवों तक संसार में एग्भ्रिमण करने के पश्चात् अत्यन्त विशुद्ध पुण्य के योग से इतनी समस्त सामग्री अब तुम को प्राप्त हुई है ॥३॥ रुवमसासयमेयं, विज्जुलयाचंचलं जए जीयं । संझाणुरागसरिसं, खणरमणीयं च तारुन्नम् ॥ ४ ॥
अर्थ--यह रुप अशाश्वत-विनाशमान है, विश्व में बिजली के चमकार जैसा जीवन चंचल है और सन्ध्या समय के आकाश के रंग जैसी क्षणभर रमणीय युवानी है ॥ ४॥ गयकन्नचंचलायो, लच्छीयो तियसचाउसारिच्छं। विसयसुहं जीवाणं, बुझसु रे जीव ! मा मुझ ॥५॥ ____ अर्थ-हाथी के कान जैसी लक्ष्मी चंचल है, इन्द्रधनुष्य के जैसा जीवों का इन्द्रियजन्य विषय सुख है, इसलिये हे जीव ! वोध पाम और चिंतित न हो ॥५॥ किंपाकफलसमाणा, विसया हालाहलोवमा पावा। मुहमुहरत्तणसारा, परिणामे दारणसहावा ॥६॥