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सारसमुच्चय कुलकम्
तह कम्मवाहिगहियो,
जम्मणमरणाउइन्नबहुदुक्खो। तत्तो निम्विन्नमणो,
परमगुरुं तयणु अनिसइ ॥३५॥ ___ उसी प्रकार कर्म व्याधियों से ग्रस्त जन्म-मरण से दुःखी जीव भी उसके पश्चात् वीतरागदेव या उसके मार्ग को समझाने वाले सद्गुरुओं को खोजता है ॥ ३५ ॥ लद्धंमि गुरु मि तो,
तव्वयणविसेसकयश्रणुद्वाणो। पडिवजइ पवज्ज,
पमायपरिवजणविसुद्धं . ॥३६॥
इस प्रकार से श्रेष्ठ गुरुओं के प्राप्त होने पर उनके वचनों से सविशेष अनुष्ठान दानादि क्रियाओं से युक्य प्रमाद के परिहार पूर्वक अप्रमत्त दीक्षा को ग्रहण करता है ॥ ३६॥ नाणाविहतवनिरश्रो,
सुविसुद्धा सारभिक्खभोइ य।