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सारसमुच्चय कुलकम्
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किं सुमिणदिट्टपरमत्थ--
सुन्नवत्थुस्स करहु पडिबंधं ?। सव्वं पि खणिममेयं,
विहडिस्सइ पेच्छमाणाण ॥३०॥ परमार्थ से शून्य स्वप्नदृष्ट वस्तुओं का प्रतिवन्ध क्यों करता है, धन शरीरादि क्षणिक सुख है । देखते ही देखते नष्ट हो जाते हैं ॥ ३०॥ संतमि जिणुदिटठे, कम्मक्खयकारणे उवायंमि । अप्पायत्तंमि न कि, तहिट्ठभया समुज्जेह ॥३१॥
जिनोपदिष्ट कर्मक्षय उपाय आत्मा से कर सकता है फिर कर्मों का भय प्रत्यक्ष सामने दृष्टिगत है फिर भी तू उपाय को उपयोग में नहीं ले रहा है कितना मूढ है १।३१।
जह रोगी कोइ नरो, अइदुसहवाहिवेयणा दुहियो। तद् दुहनिम्विन्नमणो, रोगहरं वेजमनिसइ ॥३२॥ __ जैसे कि अति दुःसह रोग की वेदना से दुःखी रोगी मनुष्य दुःख से परेशान होकर रोग को मिटाने वाले वैद्य को दृढता है वैसे ही तू भी प्रयत्न कर ॥ ३२ ॥