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________________ ___१७६ ] सारसमुच्चय कुलकम् तह कम्मवाहिगहियो, जम्मणमरणाउइन्नबहुदुक्खो। तत्तो निम्विन्नमणो, परमगुरुं तयणु अनिसइ ॥३५॥ ___ उसी प्रकार कर्म व्याधियों से ग्रस्त जन्म-मरण से दुःखी जीव भी उसके पश्चात् वीतरागदेव या उसके मार्ग को समझाने वाले सद्गुरुओं को खोजता है ॥ ३५ ॥ लद्धंमि गुरु मि तो, तव्वयणविसेसकयश्रणुद्वाणो। पडिवजइ पवज्ज, पमायपरिवजणविसुद्धं . ॥३६॥ इस प्रकार से श्रेष्ठ गुरुओं के प्राप्त होने पर उनके वचनों से सविशेष अनुष्ठान दानादि क्रियाओं से युक्य प्रमाद के परिहार पूर्वक अप्रमत्त दीक्षा को ग्रहण करता है ॥ ३६॥ नाणाविहतवनिरश्रो, सुविसुद्धा सारभिक्खभोइ य।
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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