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सारसमुच्चय कुलकम्
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जे चेव जोणि लक्ख,
भमियव्वा पुण वि जीव ! संसारे। लहिऊण माणुसत्तं,
जं कुणसि न उज्जमं धम्मे ॥२२॥ इस प्रकार धर्म सामग्री प्राप्त करना अति दुर्लभ है। अतः मनुष्य भव में आने पर भी धर्म में उद्यम नहीं करें तो फिर हे जीव ! इसी संसार में चौरासी लाख जीवा योनि में परिभ्रमण तैयार है ॥ २२ ॥ इय जाव न चुक्कसि, एरिसस्स खणभंगुरस्स देहस्स। जीवदयाउवउत्तो, तो कुण जिणदेसियं धम्मं ॥२३॥ ___अतः हे जीव ! जब तक इस क्षणभंगुर शरीर से तू मुक्त नहीं हुआ है तब तक जीवदया में उपयोगी बन कर जीवन को जिनभाषित धर्म में जिन भक्ति में अर्पित कर ॥२३॥ कम्मं दुक्खसरुवं, दुक्खाणुहवं च दुक्खहेउं च । कम्मायत्तो जीवो, न सुक्खलेसं पि पाउगाइ ॥२४॥
जीवन में कर्म दुःख स्वरूप है, भविष्य में दुःख उत्पन्न करने वाला ही है, ऐसे कर्म के आधीन हे जीव ! तू सुख की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकता है ।। २४ ।।