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१७० ] सारसमुच्चय कुलकम् लब्भइ माणुसजम्म,
श्रणेगभवकोडि दुल्लभं ॥१६॥ इस प्रकार संसार रूपी अटवी में भ्रमण करता हुआ जीव विविध जातियों में दुःखों को भोगता हुआ अनेक करोडों भवों के पश्चात् मनुष्य योनि में जन्म धारण करता है ॥१६॥ तत्थविय केइ गम्भे, मरंति बालत्तणंमि तारुन्ने। अन्ने पुण अंधलया, जावजीवं दुहं तेसि॥२०॥
उसमें भी कोई तो गर्भ में ही मर जाता है, कोई जन्म के पश्चात् बाल्यावस्था में ही नष्ट हो जाता है, कोई तारुण्य में तथा कोई जीवन भर अन्धा होता हुआ दुःख भोगता है। २० ॥ अन्नपुण कोढियया, खयवाहीसहियपंगुभूया य। दारिदे णभिभूया, परकम्मकरा नरा बहवे ॥२१॥
तो कोई कुष्ट रोगी, कोई क्षय रोगी, कोई पंगु, कोई दरिद्री तथा कोई जीवन भर गुलामी करता हुआ सड़ता रहता है। मनुष्य योनि में धर्म करने की क्षमता भी पुण्य से ही प्राप्त होती है ॥ २१॥