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सारसमुच्चय कुलकम्
जो भी संसार में जीवों को शोक उत्पन्न करने वाले सैंकड़ों दुःखों की प्राप्ति होती है वह सब जीवदया हीन होने पर ही प्राप्त होता है पूर्व में किये हुए पापों का ही परिणाम है ॥ १४ ॥ जं नाम किंचि दुक्खं,
नारतिरियाण तह य मणुयाणं । तं सव्वं पावेणं,
तम्हा पावं विवज्जेह ॥१५॥
नारकी तिर्यश्च तथा मनुष्य जो भी दुःख प्राप्त करते हैं, वह सब पाप का ही कारण है। अतः पाप का त्याग करो ॥१५॥ सयणे धणे य तह,
परियणे य जो कुणइ सासया बुद्धी। अणुधावंति कुढेणं,
रोगा य जरा य मच्चू य ॥१६॥ स्वजन, परिवार तथा धन में यह शाश्वत् बुद्धि 'ये सब हमेशा रहेंगे' रखता है उसके पीछे रोग, जरा तथा मृत्यु उस प्रकार से पड़े रहते हैं जैसे चोर के पीछे सिपाही, आखिर उसे दबोच ही लेते हैं ॥ १६ ॥