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सारसमुच्चय कुलकम्
पाण वेरियो सी, दुक्खसहरसाण श्राभागी
॥१२॥
जो अन्य जीवों पर प्रहार करता है । वस्तुतः वह स्वयं पर ही प्रहार करता है, दूसरों को मारने वाला स्वयं की आत्मा का हंता ही है । क्योंकि दूसरों को मारने से स्वयं हजारों दुःखों का भागी बनता है ।। १२ ।।
जं काणा खुज्जा वामणा य, तह चेव रूवपरिहीणा ।
उप्पज्जंति श्रहन्ना, भोगेहिं विवज्जिया पुरिसा
॥१३॥
संसार में जो काणे, कुबड़े या वामन रूपहीन उत्पन्न होते हैं तथा दरिद्री पैदा होते हैं, तथा अन्य हजारों दुःखों को भोगने वाला बनता है वह जीव दया रहित होने का पाप फल ही है । तथा ये सब निर्दता के ही फल होते हैं ॥ १३ ॥
इय जं पाविति य,
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दुइसयाई जहिययसोगजण्याई ।
तं जीवदया विणा, पावाण वियंभियं एवं
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