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सारसमुच्चय कुलकम्
सो दाया सो तवसी,
सो य सुही पंडिश्रो यसो चेव।। जो सव्व सुक्खबीयं,
जीवदयं कुणइ खंति च ॥१०॥ वही दानी है, वही तपस्वी है। वही सुखी है तथा वही पण्डित है जो सर्व सुखों का बीज समान जीवदया तथा क्षमा धारण करता है, दया तथा क्षमा विना दान तप और सुख एवं पाण्डित्य कुछ भी उपकार कर नहीं सकते ॥१०॥ किं पढिएण सुएण व,
वक्खाणिएण काई किर तेण । जत्थ न नजइ एयं,
परस्त पीडा न कायव्वा ॥११॥
उस अध्ययन, श्रुत तथा व्याख्यान का क्या मूल्य है ? जिसमें 'परपीड़ा न करो' यह जानने को नहीं मिला अर्थात-- दया बिना सब निष्फल है ॥११॥ जो पहरइ जीवाणं,
पहरइ सो अत्तणो सरीरंमि।