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जीवानुशस्ति कुलकम् रे जीव ! मणुयजम्म,
अकयत्थं जुव्वणं च वोलीणं । न य चिराणं उग्गतव्वं,
न य लच्छी माणिग्रा पवरा ॥ ८ ॥ हे जीव ! तेश मनुष्य जन्म निष्फल गया और यौवन व्यतीत हो गया, तूने उग्र तप भी नहीं किया तथा उत्तम प्रकार की लक्ष्मी का भोग भी नहीं किया ॥ ८॥ रे जीव ! किन कालो,
तुज्झ गयो परमुहं नीयंतस्स। जं इच्छियं न पत्तं,
तं प्रसिधारावयं चरसु ॥१॥ हे जीव ! पराई आशाओं को ताकते हुए क्या तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ नहीं गया ? और देख ! तुझे कुछ भी नहीं मिलने वाला । अतः असिधारा के समान यह व्रत ग्रहण कर ।। इससे निश्चय ही कर्मबन्धन कट जायेंगे ॥६॥ इयमा मुणसु मणेगां,
तुम सिरीजा परस्स श्राइत्ता ।