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सारसमुच्चय कुलकम्
[१८] ॥ अथ सारसमुच्चय कुलकम् ॥ नरनरवइ देवाणं,
जं सोक्खं सव्वमुत्तमं लोए। ते धम्मेण विढप्पइ,
तम्हा धम्म सया कुणह ॥१॥ इस लोक में मनुष्य को, राजाओं को या देवों को जो सुख मिलता है वह सब धर्म के ही कारण मिलता है अतः हे भव्य जीवों ! सर्वदा धर्म की आराधना करो ॥१॥ उच्छुन्ना किं च जरा ?
- नट्टा रोगा य किं मयं मरणं ?। ठड्यं च नरयदारं ?
जेण जणो कुणइ न य धम्मं ॥२॥ यदि जरा नष्ट हो गई है। रोग नष्ट हो गये है। मरण समाप्त हो गया है । नरक गति के द्वार बन्द हो गया है तो इसका एक मात्र कारण है धर्म रक्षक है । नहीं तो इन सबका भय धर्म के विना बना रहता है ॥२॥