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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
भी है, और यदि स्वयं से संतुष्ट नहीं है तो स्वयं ही स्वयं का शत्रु है तथा स्वयं ही नरक है स्वयं ही रंक है, अतः आत्मा की अधम तथा उत्तम स्थिति का स्वयं ही जुम्मेदार है ॥ १३ ॥ लद्धा सुरनररिद्धि,
विसया वि सया निसेविया णेण । पुण संतोसेण विणा,
कि कत्थ वि निव्वुई जाया ॥१४॥ इस जीवने देवों की मनुष्यों की समृद्धि एवं ऋद्धि प्राप्त की तथा स्वर्ग में चार बार समस्त सुखों का सेवन किया किन्तु उसे किसी भी स्थान पर संतोष नहीं मिला, अतः संतोष ही शान्ति का मूल कारण है ॥ १४ ॥ जीव ! सयं चित्र निम्मित्र.
तणुधरमणी कुटुंब नेहेणं । मेहे णिव दिणनाहो,
छाइनप्ति तेश्रवंतो वि ॥१५॥ जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य भी मेघघटा से आच्छादित हो जाता है और निस्तेज बन जाता है। उसी प्रकार हे