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श्री पात्मावबोध कुलकम्
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ही अप्पबोहरहिस्स,
श्रोसहाउट्टियो वाही ॥३७॥ जैसे जैसे ज्यादा पढ़े, मन अहंकार से भर गया । वास्तव में यदि पढने में आत्मबोध नहीं हुआ तो अधिक पढना कर्मरोग को मिटाने की औषधि के बदले गर्वरूपी रोग को दे गया ॥ ३७॥ अप्पाणमबोहंता,
परं विबोहंति केइ तेवि जडा। भण परियणम्मि छुहिए,
सत्तागारेण किं कज्जं ॥३८॥ स्वयं की आत्मा को बोध करने के बदले लोग परउपदेश ज्यादा करते हैं, वे वास्तव में मूर्ख है । तुम्हीं बताओ एक तरफ तुम्हारा परिवार भूखा है जब कि दूसरों के लिये दानशाला खोलने की समझदारी कहां तक उचित है ? निश्चय से तो आत्मा को समझाना ही दूसरों को समझाना है ॥ ३८॥ बोहंति परं किंवा,
मुणंति कालं नरा पति सुश्रं।