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श्रीमात्मावबोध कुलकम्
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यदि आत्मज्ञानी होना है तो दूसरे तुझे अच्छा या बुरा कहते हैं यह मोह छोड दें। बाहरी ढोंग छोड दे । आत्मा को आत्मा से ही प्रसन्न कर । तू स्वगुणों का उपार्जन कर आत्मा को प्रसन्न कर दूसरों की विकथाओं को छोड दे। तं भणसु गणसु वायसु,
झायसु उवइससु पायरेसु जिया। खण मित्तमपि विश्रक्खण,
श्रायारामे रमसि जेण ॥४२॥ हे जीव ! तू ऐसा ही पढ, ऐसा ही गुन, ऐसा ही वांच तथा ऐसा ही ध्यान कर, तथा आचरण कर जिससे हे विचक्षण! तू क्षण मात्र भी आत्मारूपी वाग में रमे-आत्मानन्दी हो जाये ॥ ४२ ॥ इय जाणिऊण तत्तं,
गुरुवइटें परं कुण पयत्तं । लहिऊगा केवलसिरिं,
जेणं जय सेहरो होसि ॥४३॥