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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
ठाण मुग्रंति सया वि हु,
विणाऽऽय बोहं पुण न सिद्धी ॥३॥ दसरों को उपदेश दे, ज्योतिष से मरण तिथि तक का ज्ञान कर लें, सूत्रों का खूब पारायण करें, स्वस्थान भी सम्मान में सुरक्षित कर लें, फिर भी यदि आत्मज्ञान नहीं हुआ है तो ये सब व्यर्थ है सिद्धि नहीं है ।। ३६ ।। अवरो न निंदिग्रव्यो,
पसंसिश्रवो कया वि नहु अप्पा । समभावो कायब्वो,
बोहस्स रहस्स मिणमेव ॥४॥ कभी भी पराई निंदा नहीं करनी चाहिये तथा स्वयं की प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिये, तथा सम भाव रखना चाहिये । यही आत्मबोध का रहस्य है ॥४०॥ परसक्खितं भंजसु,
रंजसु अप्पागमप्पणा चेव । वजसु विविह कहाश्रो,
___ जइ इच्छसि अप्पविनाणं ॥४१॥