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___१२२ ] श्री प्रात्मावबोध कुलकम् तं मिंदसु भवसेलं,
झाणासणिणा जिथ ! सहेलं ॥३५॥ जहां मिथ्यात्व रूपी राक्षस रहता है, जहां पर्वत के समान दृढ मन रहता है, ममत्व रूपी शिलाएँ रहती है । संसार रूपी कठिन दुर्गम पर्वत को ध्यान रूपी वज्र से लीलामात्र में ही हे जीव ! तू भंग कर दे ॥ ३५ ॥ जत्थत्थि प्रायनाणं,
नाणं वियाण सिद्धि सुहयं तं । सेसं बहुवि अहियं,
जाणसु श्राजीविश्रा मित्तं ॥३६॥ सच्चा ज्ञान क्या है ? इस विषय में कहते हैं, जो विरतीधरों का ज्ञान है वही आत्मज्ञान सिद्धि सुख को देने वाला होता है, इसके अतिरिक्त बहुत पढ़ा हुआ पोथी का ज्ञान, मात्र आजीविका का साधन है । अतः कौन सा रास्ता लेना है यह तू स्वयं विवेक से निर्णय कर ॥ ३६॥ सुबहु अहिअं जह जह,
तह तह गब्वेण पूरिनं चित्तं ।