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श्री प्रात्मावबोध कुलकम
तू लोक प्रमाण वाला है, ज्ञानमय है, अनन्त वीर्यवान है, अतः धर्म ध्यान रूपी आसन पर बैठकर आत्म साम्रज्य का विचार कर ।। ३० ॥ को व मणो जुवराया,
को वा रायाइ रजपभंसे । जइ जग्गियोसि संपइ,
परमेसर ! पविस चेअन्नो (चेअन्न) ॥३१॥ तू अभी जाग गया है । अतः देख, तुम्हारे सामने वह अवमानित मनरूपी युवराज तथा चोररूपी राजा कौन है जो तेरी राज्यश्री को समाप्त करने जा रहा है, स्वयं की चेतना में प्रवेश कर, अपना स्वरूप देख । क्योंकि तू स्वयं परमेश्वर सर्वशक्तिमान आत्मा से है ।।३।। नाणमयो वि जडो वि.
पह वि चोरुव्व जत्थ जायो सि । भवदुग्गम्मि किं तस्य,
वससि साहीणसिवनयरे ॥३२॥ ज्ञान के रहते हुए भी तू जड जैसा हो गया है, स्वामी के रहते भी तू चोर के समान डर वाला हो गया है । मोक्ष नगर तेरे अधीन रहते हुए भी तू संसार कारावास में कैद हो गया है ऐसा क्यों ? सोच ।। ३२ ॥