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श्री आत्मावबोध कुलकम्
तं कुसि तं च जंपसि, तं चिंसि जेा पडसि वसणोहे |
एयं सगिहरहस्सं, न सक्किमो कहिउमन्नस्स
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हे आत्मन् ! तू कार्य, शब्द तथा विचारों के कारण स्वयं ही दुःख के समुद्र में गिरता हैं तथा अन्तरंग भेद तू स्वयं बहिरंग प्रगट करके स्वयं की प्रतिष्ठा गिरा रहा है ।
पंचिदियपरा चोरा, मणजुवरन्नो मिलित्तु पावरस | निश्रनित्थे निरत्ता, मूलट्ठिइ तुज्झ लुपंति
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हे आत्मन् ! अपने अपने स्वार्थ में आसक्त पांचों इन्द्रियों रूप महान् डाकू पापी मनरूपी युवराज के साथ मिलकर तुम्हारे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र रूप धन का हरण कर रहे हैं । आत्मगुण की चोरी हो रही है तू भूला कैसे बैठा है ॥ २७ ॥
हणि विवेगमंती,
भिन्नं चउरंगधम्मचक्कंपि ।