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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
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अइ पालियाहिं, पगइत्थियाहिं,
जं भामियासि वंधेउं । संते वि पुरिसकारे,
न लजसे जीव ! तेणं वि ॥२४॥ हे जीव ! तुम्हारे में अनन्त वल होते हुए भी अति पालन की हुई कर्म प्रकृत्ति रूपी स्त्रियों के द्वारा तू बंध कर चारों गतिओं में परिभ्रमण कर रहा है, क्या इसकी लजा तूझे अभी तक नहीं आती ? ॥ २४ ॥ सयमेव कुणास कम्म,
तेण य वाहिजसि तुमं चेव । रे जीव ! अप्पवेरिश्र!
अन्नस्स य देसि किं दोसं ॥२५॥
हे जीव ! स्वयं की आत्मा का शत्रु तू स्वयं कर्म उपार्जन करके बन रहा है। उसी के कारण चारों गतिओं में भ्रमण कर रहा है। फिर भी 'अमुक व्यक्ति ने मेरा बुरा किया' यह दोष पर को देता है, जबकि तू स्वयं इसका जुम्मेदार है ॥ २५ ॥