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श्रीमात्मावबोध कुलकम्
दे जाता है श्वान के समान भी कृतज्ञ नहीं है, अतः इस का मोह करना छोड दो ॥१७॥ कट्ठाइ कडुअ बहुहा,
जं धणभावजिअं तए जीव ! कट्ठाइ तुझ दाउं,
तं अंते गहिश्र मन्नेहिं ॥१॥ हे जीव ! बहुत प्रकार से ठंड, धूप, क्षुधा, तृषा तथा जंगलों का दुःसाध्य कष्ट सहन कर तूने धन का संग्रह किया उस धन ने भी तुझे मूञ्छित कर दुःख ही दिया है।
और तुम्हारे सामने ही अग्नि, चोर राजादि का धन चला गया वहाँ तेरा कोई वश नहीं चला ।। १८ ॥ जह जह अन्नाणवसा,
धणधनपरिग्गहं बहु कुणसि । तह तह लहु निमजसि,
भवे भवे भारिपतरि व्व ॥१॥ हे जीव ! जैसे जैसे तू अज्ञान के वशीभूत होकर धनधान्यादि परिग्रह करता है उसी प्रमाण से तेरी नैया अधिक