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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
शुभ भावनाओं से भी बंधा हुआ मन स्थिर नहीं होता, अभिग्रहादि से रोका हुआ भी मन अस्थिर हो जाता है वही मन आत्मबोध से वश में आ जाता है तथा स्वयं ही शान्ति को प्राप्त हो जाता है। ह॥ बहिरतरंगभेया,
विविहावाही न दिति तस्स दुहं । गुरुवयणात्रो जेणं,
सुहझाणरसायणं पत्तं ॥१८॥ जिसने सद्गुरु वचनामृत का पान कर लिया है, आत्म ध्यान रूप रसायन का सेवन कर लिया है उसे पहिरंग रोगादि और अन्तरंग कामक्रोधादि विविध प्रकार की व्याधियां दुःख नहीं दे सकती ॥ १० ॥ जिग्रमप्पचिंतणपरं,
न कोइ पीडेइ अहव पीडेइ । ता तस्स नस्थि दुक्खं,
रिणमुखं मन माणस्स ॥११॥ जो जीव आत्मचिंतन में तत्पर रहा है, उसे कोई पीडा दुःख नहीं देती तथा यदि कोई पीडा दे तो भी दुःख नहीं