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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
निअविनाणे निरया,
निरयाई दुहं लहंति न क्या वि । जो होइ मग्ग लग्गो,
कहं सो निवडेइ कूवम्मि ? ॥५॥ आत्मविज्ञान में निरन्तर रक्त जीव कभी भी नरक तियंच आदि दुःख कारक योनियों में जन्म धारण नहीं करते, कारण कि जो आत्मविज्ञान रूपी सीधे राजमार्ग पर चले तो संसार रूपी कूप में कैसे गिरेगा ? ॥ ५ ॥ तेसिं दूरे सिद्धी,
रिद्धी रणरणयकारणं तेसि । तेसिम पुराणा श्रासा,
जेसि अप्पा न विनायो जो आत्मा की पहचान नहीं कर सकता, उनसे सिद्धि दर ही रहा करती है. लक्ष्मी भी उन्हें दुःख का कारण ही बनती है, तथा उनकी आशाएँ हमेशा अपूर्ण ही रहती है । ता दुत्तरो भवजलही,
__ता दुज्जेश्रो महालश्रो मोहो।