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श्री प्रात्मावबोध कुलकम्
[१२] ॥ श्री आत्मावबोध कुलकम् ॥ धम्मप्पहरमणिज्जे,
पणमित्तु जिणे महिंद नमणिज्जे । अप्पावबोहकुलयं,
वुच्छं भवदुक्ख कयपलयं ॥१॥ धर्म की प्रभा से रमणीय और महेन्द्रों द्वारा नमनीय श्री जिनेन्द्रों को प्रणाम करके भव दुःख को नष्ट करने वाला आत्माववोध (अनुभव) कारक कुलक का वर्णन करूंगा ।।१।। अत्तावगमो नजइ
सयमेव गुणेहिं किं बहु भणसि ? सूरुदो लक्खिजई,
पहाइ न उ सवहनिवहेणं ॥२॥
जिस प्रकार सूर्योदय सूर्य की प्रभासे माना जाता है, तेजहीन सूर्य उदित नहीं होता उसी प्रकार आत्मबोध स्वयं आत्मगुणों के कारण ही जाना जा सकता है संख्यावन्ध सोगन खाने