________________
श्री आत्मावबोध कुलकम्
[१०७
से भी आत्मवोध होता नहीं, हे जीव ! अधिक क्यों प्रलाप करता है, क्यों स्व प्रशंसा करता है ॥२॥ दमसम समत्त मित्ती.
संवेश विवेथ तिव्वनिव्वेश्रा। ए ए पगूढ अप्पा
वबोहबीअस्स अंकुरा ॥३॥ इन्द्रियों का दमन, मनोविकार का शमन, समभाव मैत्री, संवेग, विवेक और तीव्र निर्वेद ये गुप्त रहने वाले आत्मज्ञान रूप वीज के सव अंकुर हैं ।। ३ ।। जो जाणइ अप्पाणं,
अप्पाणं सो सुहाणं न हु कामी। पत्तम्मि कप्परक्खे, ___रुखे किं पत्थणा असणे ? ॥४॥
जो आत्मा को जानता है, वह (संयोग वियोग धर्मवाले संसार के) अल्प सुखों के कामी नहीं होता है, जिसे कल्पवृक्ष प्राप्त हो गया हो वह असन के वृक्ष की चाहना भी क्यों करेगा ॥४॥