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श्री प्रात्मावबोध कुलकम् [ १०६ ता श्रइ विसमो लोहो,
जा जाश्रो न(नो) निश्रो बोहो ॥ ७॥ जहां तक ही भव सागर दुस्तर है तब तक कि महामोह नष्ट नहीं हुआ तथा तब तक ही लोभ रहता है जब तक आत्मज्ञान नहीं होता है॥७॥ जेण सुरासुरनाहा,
हहा श्रणाहुब्व वाहिया सोवि। श्रमप्पझाण जलणे,
पयाइ पयंगत्तणं कामो ॥८॥ अरे ! जिन्होंने सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र सबको ही अनाथ की तरह वश में कर लिया है वह प्रबल काम भी अध्यात्म ध्यान रूप अग्नि में पतंगीया के समान जल कर भस्म हो जाता है ॥८॥ जं बद्धपि न चिट्टइ,
वारिज्जतं वि(प)सरइ असेसे। झाणबलेणं तं पि हु,
सयमेव विलिजई चित्तं। ॥१॥